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(21) Kamakhya shaktipeeth

(21) कामाख्या शक्तिपीठ






कामाख्या पीठ भारत का प्रसिद्ध शक्तिपीठ है । कामाख्या देवी का मंदिर गुवाहाटी से 10 कि.मी. दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है । कामाख्या देवी का मंदिर पहाड़ी पर स्थित है । अनुमानतः एक मील ऊंची इस पहाड़ी को नील पर्वत भी कहते हैं । कामरूप् कामाख्या में सती के योनि का निपात हुआ था, इसलिए इसे योनिपीठ कहा जाता है । .कामाख्या शक्तिपीठ की कामाख्या देवी या शक्ति के प्रधान नामों में से एक नाम है यह तांत्रिक देवी है और काली तथा त्रिपुर सुन्दरी के साथ इनका निकट सम्बंध है । पश्चिम भारत में जो कामारूप की नारी शक्ति के अनेक अलौकिक चमत्कारों की बात लोकसाहित्य में कही गई है, उसका आधार इस कामाक्षी का महत्व ही है । 













कामरूप का अर्थ ही है ‘‘ इच्छानुसार रूप धारण कर लेना ’’ और विश्वास है कि असम की नारियाँ चाहे जिसको अपनी इच्छा के अनुकूल रूप में बदल देती थीं । कामरूप शक्तिपीठ असम में स्ािापित हुआ, जो आप की गौहाटी के सामने ‘‘ कामाख्या’’  नामक पहाड़ी पर स्थित है । राजा विश्वसिंह ने मंदिर का निर्माण किया । खुदाई के दौरान यहां कामदेव के मूल कामाख्या पीठ का निचला भाग बाहर निकल आया । राजा ने उसी के ऊपर मंदिर बनवाया तथा स्वर्ण मंदिर के स्थान पर प्रत्येक ईंट के भीतर एक रत्ती सोना रखा । 



देवीभागवत में कामाख्या देवी के महात्म्य का वर्णन है इसका दर्शन , भजन, पाठ-पूजा करने से सर्व विघ्नों की शान्ति होती है । शक्ति की पूजा - इस तीर्थस्थल के मंदिर में शक्ति की पूजा योनिरूप में होती है । यहाँ कोई देवीमूर्ति नहीं । । योनि आकार का विशालखण्ड है जिसके ऊपर लाल रंग की गेरू के घोल की धारा गिराई जाती है और वह रक्तवर्ण के वस्त्र से ढका रहता है । इस पीठ के सम्मुख पशुबलि  भी होती है । यहाँ देवी की योनि का पूजन होता है । इस नील प्रस्तरमय योनि में माता कामाख्या साक्षात् वास करती है । जो मनुष्य इस शिला का पूजन, दर्शन स्पर्श करते हैं, वे देवी कृपा तथा मोक्ष के साथ भगवती का सान्निध्य प्राप्त करते हैं ।



 तंत्र-मंत्र साधना के लिये चर्चित कामरूप कामाख्या में शक्ति की देवी कामाख्या का मंदिर है, जहां हर साल आषाढ महीने में होने वाले ‘‘ अंबुबाची’’ मेले को कामरूप् का कुम्भ माना जाता है । देश भर के तमाम साधु और तांत्रिक इस समय यहां पहुंचते हैं । ये साधक नीलांचल पर्वत की विभिन्न गुफाओं में बैठकर साधना करते हैं । अंबुबाची मेले के दौरान यहां तरह तरह के हठयोगी पहुंचते हैं । कोई अपनी दस-बारह फीट लम्बी जटाओं के कारण देखने लायक होता है । कोई पानी में बैठकर साधना करता है तो कोई एक पैर पर खड़े होकर । चार दिनों तक चलने वाले अंबुबाची मेले में करीब 4 से 5 लाख श्रद्धालु जुटते हैं । 


धार्मिक मान्यता:- जून-जुलाई (आषाढ) माह के अंत में पृथ्वी के मासिक चक्र की समाप्ति पर अंबुबाची मेला आयोजित होता है और इस अवसर पर मंदिर चार दिन के लिए बंद कर दिया जाता है । कहते हैं इस समय माता रजस्वला रहती हैं । हिन्दू समाज में रजोवृति के दौरान शुभ कार्य नहीं होते, इसलिये इन दिनों असम में कोई शुभ कार्य नहीं होता । विधवाएं, साधु-संत आदि अग्नि को नहीं छूते और आग में पका भोजन नहीं करते । साधु और तांत्रिक मंदिर के आस पास वीरान जगहों और कंदराओं में तप में लीन हो जाते हैं । चार दिन बाद मंदिर के कपाट खुले पर पूजा-अर्जना के बाद ही लौटते हैं । 



इस पर्व में देवी माता के रजस्वला होने से पूर्व गर्भ-गृह में स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढाये जाते हैं । कहते हैं कि बाद में ये लाल रंग के हो जाते है । बाद मंे मंदिर के कपाट खुलने पर पुजारियों द्वारा प्रसाद स्वरूप दिये गये लाल वस्त्र के टुकड़े पाकर श्रद्धालु धन्य हो जाते हैं । मान्यता है, इस वस्त्र का अंश मात्र मिल जाने पर भी सारे विघ्न दूर हो जाते हैं । कामाख्या मंदिर में लोग चुनरी और दूसरे वस्त्र चढाते हैं । यहां कन्या पूजन की भी परम्परा है । इस मंदिर को कामनाओं की पूर्ति वाला मंदिर भी कहते हैं । 











कहते हैं, माता के दरबार से कोई निराश नहीं लौटता । पर्वत पर स्थित मंदिर के सामने ही तालाब है । वैसे पूरे पर्वत पर मंदिर की मंदिर दिखते हैं । इतिहासकार कहते हैं कि माँ कामाख्या के इस भव्य मंदिर का निर्माण कोच वंश के राजा चिलाराय ने 1565 में करवाया था, लेकिन आक्रमणकारियों द्वारा इस मंदिर को क्षतिग्रस्त करने के बाद 1665 में कूच बिहार के राजा नर नारायण ने दोबारा इसका निर्माण करवाया है । देश में स्थित विभिन्न पीठों में से कामाख्या पीठ को महापीठ माना जाता है । इस मंदिर में 12 स्तम्भों के मध्य देवी की विशाल मूर्ति है । मंदिर एक गुफा में स्थित है ।






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