नवम गुरु श्री तेग बहादुर जी का शहीदी दिवस
सिखों के नवम गुरु श्री तेग बहादुर जी ने कश्मीरी पंडितों के
धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग
कर दिया, परंतु सत्य के मार्ग को नहीं छोड़ा। आत्मबलिदानी नौवें गुरु ने कश्मीरी
पंडितों के आग्रह पर उनके 'तिलक' और 'जनेऊ' की रक्षा के लिए आत्माहुति दी, जो उनके
अपने मत में निषिद्ध थे।
किसी दूसरे के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए दिए जाने वाले बलिदान देने की
यह एकमात्र मिसाल है। बैसाख कृष्ण पक्ष पंचमी संवत 1678 वि. यानी 18 अप्रैल, 1621
ई. को अमृतसर नगर में पिता छठे गुरु श्री हरगोविंद साहिब एवं माता नानकी के घर
जन्म लेने वाले गुरु तेग बहादुर बचपन से ही आध्यात्मिक रुचि वाले थे। उन्होंने
1634 ई. में मात्र 13 वर्ष की आयु में करतारपुर के युद्ध में ऐसी वीरता दिखाई कि
पिता ने उनका नाम 'त्याग मल' से 'तेग बहादुर' रख दिया। गुरु पिता के ज्योति जोत
समाने के बाद वे पत्नी माता गुजरी के साथ अमृतसर के बकाला गांव में आकर साधना में
लीन हो गए।
21 वर्ष की सतत् साधना के उपरांत 1665 ई. में गुरु गद्दी पर विराजमान
हुए। वर्ष 1675 ई. में कश्मीरी पंडितों का एक दल गुरु जी के दरबार में आया और उसने
बताया कि औरंगजेब जबरन लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर कर रहा है और ऐसा न
करने पर उन पर अत्याचार करता है। उस दल के मुखिया ने गुरु जी से सहायता की याचना
की। गुरु जी ने कहा- इसके लिए किसी महापुरुष को आत्मबलिदान देना होगा।
नौ वर्षीय
बालक गुरु गोविंद सिंह जी ने फरमाया, इस बलिदान के लिए आपसे बड़ा महापुरुष कौन हो
सकता है? तीन सिखों भाई मती दास, भाई सती दास और भाई दयाला को यातनाएं देकर शहीद
कर दिया गया। औरंगजेब ने गुरु जी पर भी अनेक अत्याचार किए, परंतु वे अविचलित रहे।
अंतत: आठ दिनों की यातना के बाद 24 नवंबर 1675 ई. को गुरु जी को दिल्ली के चांदनी
चौक में शीश काटकर शहीद कर दिया गया।
यहां आजकल गुरुद्वारा 'शीश गंज' सुशोभित है।
भाई जैता जी भरे पहरे के बावजूद गुरु जी का शीश आनंदपुर ले जाने में सफल रहे। भाई
लखीशाह भारी धनराशि चुकाकर गुरु जी के शरीर को अपने घर ले गए और उस घर को आग लगाकर
दाह संस्कार संपन्न किया। इस पवित्र स्थान पर अब गुरुद्वारा 'रकाब गंज' सुशोभित
है।
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