.संतान सप्तमी - संतान प्राप्ति, संतान रक्षा एवं संतान उन्नति व्रत (2015)
संतान सप्तमी व्रत पारंपरिक हिंदू चंद्र कैलेंडर के अनुसार भाद्रपद के शुक्ल पक्ष, महीने में दिनांक 20 सितंबर 2015 को बच्चों को प्राप्त करने के लिए और बच्चों के साथ जुड़े सभी चिंताओं को दूर करने के लिए मनाया जाना है । स्वस्थ बच्चे पैदा करने की इच्छा है जो विवाहित जोड़ों के दिन भगवान शिव और देवी पार्वती हिंदू प्रार्थना करते हैं। इस व्रत पुरुषों और महिलाओं दोनों के द्वारा किया जाता है।
.संतान सप्तमी एक दिव्य व्रत है और इसके पालन से विविध कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं । .संतान सप्तमी का व्रत माघ मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी को किया जाता है । यह सप्तमी पुराणों में रथ, सूर्य, भानु, अर्क, महती, आरोग्य, पुत्र, सप्तसप्तमी आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध है और अनेक पुराणों में उन नामों के अनुरूप व्रत की अलग-अलग विधियों का उल्लेख है । यह व्रत पुत्र प्राप्ति, पुत्र रक्षा तथा पुत्र अभ्युदय के लिए किया जाता है ।
इस व्रत का विधान दोपहर तक रहता है । इस दिन जाम्बवती के साथ श्यामसुंदर तथा उनके बच्चे साम्ब की पूजा की जाती है । माताएं पार्वती का पूजन करके पुत्र प्राप्ति तथा उसके अभ्युदय का वरदान मांगती है । इस व्रत का ‘‘ मुक्ताभरण’’ भी करते हैं । इस व्रत को रखने के लिए प्रातः स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र पहनें । दोपहर को चैक पूर कर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, सुपारी तथा नारियल आदि से षिव-पार्वती की पूजा करें । इस दिन नैवेद्य भोग के लिए खीर-पूरी तथा गुड़ के पुए रखें । रक्षा के लिए शिवजी को डोरा भी अर्पित करें । इस डोरे को षिवजी के वरदान के रूप में लेकर उसे धारण करके व्रतकथा सुनें ।
व्रत के रूप में इस दिन नमक रहित एक समय एकान्त का भोजन अथवा फलाहार करना चाहिए । मान्यता है कि अचला सप्तमी का व्रत करने वाले को वर्ष भर सूर्य व्रत करने का पुण्य प्राप्त हो जाता है । जो अचला सप्तमी के माहात्म्य का श्रद्धा-भक्ति से वाचन, श्रवण तथा उपदेश करेगा, वह उत्तम लोक को अवश्य प्राप्त करेगा । भारतीय संस्कृति में व्रत, पर्व एवं उत्सवों की विशेष प्रतिष्ठा है । यहां प्रति दिन कोई-न-कोई व्रत, पर्व या उत्सव मनाया जाता है । अचला सप्तमी एक दिव्य व्रत है और इसके पालन से विविध कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं, अतः स्त्री-पुरूषादि सभी को इस व्रत का पालन अवष्य करना चाहिए ।
सप्तमी व्रत की कथा - श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि किसी समय मथुरा में लोमश ऋ षि आए थे। मेरे माता-पिता देवकी तथा वसुदेव ने भक्तिपूर्वक उनकी सेवा की तो ऋ षि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने के लिए ‘संतान सप्तमी’ का व्रत करने को कहा। लोमश ऋ षि ने उन्हें व्रत का पूजन-विधान बताकर व्रतकथा भी बताई। संतान सप्तमी व्रत कथा के अनुसार नहुष अयोध्यापुरी के प्रतापी राजा थे उनकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था। उनके राज्य में ही विष्णुदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती में परस्पर घनिष्ठ प्रेम था।
एक दिन वे दोनों सरयू में स्नान करने गईं। वहां अन्य स्त्रियां भी स्नान कर रही थीं। उन स्त्रियों ने वहीं शिव-पार्वती की प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया। तब रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती को इसे देखकर कौतुहल हुआ और उन्होंने, उन स्त्रियों से इस व्रत के विधि-विधान के बारे में पूछा। उन स्त्रियों में से एक ने बताया- यह व्रत संतान देने वाला है। उस व्रत की बात सुनकर उन दोनों सखियों ने भी जीवन-पर्यंत इस व्रत को करने का संकल्प किया और शिवजी के नाम का डोरा बांध लिया। किंतु घर पहुंचने पर वे संकल्प को भूल गईं। फलतः मृत्यु के पश्चात रानी वानरी तथा ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं। कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुनः मनुष्य योनि को प्राप्त हुईं। चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था।
भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ। इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया। व्रत भूलने के कारण ही रानी इस जन्म में संतान सुख से वंचित रही। भूषणा ने व्रत को याद रखा था। इसलिए, उसके गर्भ से आठ पुत्रों ने जन्म लिया। रानी ईश्वरी के पुत्र शोक की संवेदना के लिए एक दिन भूषणा उससे मिलने गई। उसे देखते ही रानी के मन में ईर्ष्या पैदा हो गई और उसने उसके बच्चों को मारने का प्रयास किया किंतु बालक न मर सके। उसने भूषणा को बुलाकर सारी बात बताई और फिर क्षमायाचना करके उससे पूछा- किस कारण तुम्हारे बच्चे नहीं मर पाए। भूषणा ने उसे पूर्वजन्म की बात स्मरण कराई और उसी के प्रभाव से आप मेरे पुत्रों को चाहकर भी न मरवा सकीं। यह सब सुनकर रानी ईश्वरी ने भी विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ताभरण व्रत रखा। तब व्रत के प्रभाव से रानी पुनः गर्भवती हुई और एक सुंदर बालक को जन्म दिया। उसी समय से पुत्र-प्राप्ति और संतान की रक्षा के लिए यह व्रत प्रचलित है।
व्रत एवं पूजन विधि
- इस व्रत का विधान दोपहर तक रहता है। माताएं भगवान शिव पार्वती का पूजन करके पुत्र प्राप्ति तथा उसके अभ्युदय का वरदान मांगती हैं। इस व्रत को ‘मुक्ताभरण’ भी कहते हैं। व्रत करने वाले को प्रातः काल स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए। दोपहर के समय चैक पूर कर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, सुपारी तथा नारियल आदि से शिव-पार्वती की पूजा करें। इस दिन नैवेद्य भोग के लिए खीर-पूरी तथा गुड़ के पुए रखें। रक्षा के लिए शिवजी को डोरा भी अर्पित करें। डोरे को शिवजी के वरदान के रूप में लेकर उसे धारण करके व्रत कथा का श्रवण करना चाहिए।
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