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कांवड़ यात्रा - शिव भक्ति, धार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक महत्व


कांवड़ यात्रा - शिव भक्ति, धार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक महत्व 




श्रावण मास में शिव आराधना का विशेष महत्व है। इस मास में शंकर जी की यथोपचार पूजा, अमर कथा का पाठ करने या सुनने पर लौकिक कष्टों से मुक्ति मिलती है जिनमें पारिवारिक कलह, अशांति, आर्थिक हानि और कालसर्प योग से आने वाली बाधा शामिल है। इस प्रकार श्रावण मास में शिव पूजा से ग्रह बाधाओं और परेशानियों का अंत होता है। ऐसा माना जाता है कि जब सारे देवता श्रावण मास में शयन करते हैं तो भोलेनाथ का अपने भक्तों के प्रति वात्सल्य जागृत हो जाता है। 



कांवड़ का जल केवल 12 ज्योर्तिलिंगों और स्वयंभू शिवलिंगों (जो स्वयं प्रकट हुए हैं) पर ही चढ़ाया जाता है। पांच प्रकार की होती है कांवड़ - बैठी कांवड़, खड़ी कांवड़, दंडौती कांवड़, मन्नौती कांवड़, डाक कांवड़ शिव से संबंधित आयोजनों में व्रत , उपवास और तपस्या का ही माहात्म्य है। सावन निराकार शिव की आराधना का महीना है। कहते हैं कि देवशयनी एकादशी के दिन से भगवान विष्णु देवताओं समेत चार मास के लिए सोने चले जाते हैं। इस दौरान वे सृष्टि को पालने का काम भोले शंकर को सौंप देते हैं। चतुर्मास शुरू होते ही पर्वों और त्योहारों की झड़ी लग जाती है।



इसकी शुरुआत सावन में शिव की आराधना से होती है। सावन और सोमवार का शिव की उपासना से अटूट संबंध है। मानव जीवन में प्रकृति का कल्याणकारी रूप भोजन , वायु , जल और प्राकृतिक सौंदर्य के साथ अनेक रूपों में तन - मन को पोषण देता है। शिव की उपासना में जल , फूल , पत्र और फल के चढ़ावे का विशेष महत्व है। शिव का पूजन लिंग रूप में ज्यादा फलदायक माना गया है। कांवड़ यात्रा के समय इन बातों का रखें ध्यान हमारे देश में प्राचीन काल से कांवड़ यात्राएं निकाली जा रही है। कुछ लोग कांवड़ यात्रा के सिर्फ धार्मिक पक्ष को ही जानते हैं जबकि कांवड़ यात्रा का मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है। कांवड़ यात्रा वास्तव में एक संकल्प होती है, जो श्रद्धालु द्वारा लिया जाता है। कांवड़ यात्रा के दौरान यात्रियों द्वारा नियमों का पालन सख्ती से किया जाता है। कांवड़ यात्रियों के लिए किसी भी प्रकार का नशा वर्जित रहता है।



इस दौरान तामसी भोजन यानी मांस, मदिरा आदि का सेवन भी नहीं किया जाता। बिना स्नान किए कांवड़ यात्री कांवड़ को नहीं छूते। तेल, साबुन, कंघी करने अन्य श्रृंगार सामग्री का प्रयोग भी कावड़ यात्रा के दौरान नहीं किया जाता। कांवड़ यात्रियों के लिए चारपाई पर बैठना एवं किसी भी वाहन पर चढ़ना भी निषेध है। चमड़े से बनी वस्तु का स्पर्श एवं रास्ते में किसी वृक्ष या पौधे के नीचे कांवर रखने की भी मनाही है। कांवड़ यात्रा मंत बोल बम एवं जय शिव-शंकर घोष का उच्चारण करना तथा कांवड़ को सिर के ऊपर से लेने तथा जहां कांवड़ रखी हो उसके आगे बगैर कांवड़ के नहीं जाने के नियम का पालन किया जाता है। इस तरह कठिन नियमों का पालन कर कांवड़ यात्री अपनी यात्रा पूर्ण करते हैं।



इन नियमों का पालन करने से मन में संकल्प शक्ति का जन्म होता है। शास्त्रोक्त नियम-विधान अनुसार शिवलिंग पूजा शुभ फल देने वाली मानी गई है। इन नियमों में एक हंै शिवलिंग पूजा के समय भक्त का बैठने की दिशा। जानते हैं शिवलिंग पूजा के समय किस दिशा और स्थान पर बैठना कामनाओं को पूरा करने की दृष्टि से विशेष फलदायी है। 1. जहां शिवलिंग स्थापित हो, उससे पूर्व दिशा की ओर चेहरा करके नहीं बैठना चाहिये क्योंकि यह दिशा भगवान शिव के आगे या सामने होती है और धार्मिक दृष्टि से देव मूर्ति या प्रतिमा का सामना या रोक ठीक नहीं होती। 2. शिवलिंग से उत्तर दिशा में भी बैठे क्योंकि इस दिशा में भगवान शंकर का बायां अंग माना जाता है, जो शक्तिरूपा देवी उमा का स्थान है।



3. पूजा के दौरान शिवलिंग से पश्चिम दिशा की ओर नहीं बैठना चाहिए क्योंकि वह भगवान शंकर की पीठ मानी जाती है। इसलिए पीछे से देवपूजा करना शुभ फल नहीं देता। 4. इस प्रकार एक दिशा बचती है - वह है दक्षिण दिशा। इस दिशा में बैठकर पूजा, फल और इच्छापूर्ति की दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाती है। 5. सरल अर्थ में शिवलिंग के दक्षिण दिशा की ओर बैठकर यानि उत्तर दिशा की ओर मुंह कर पूजा और अभिषेक शीघ्र फल देने वाला माना गया है। इसलिए उज्जैन के दक्षिणमुखी महाकाल और अन्य दक्षिणमुखी शिवलिंग की पूजा का बहुत धार्मिक महत्व है। 6. शिवलिंग पूजा में सही दिशा में बैठने के साथ ही भक्त को भस्म का त्रिपुण्ड लगाना, रुद्राक्ष की माला पहनना और बिल्वपत्र अवश्य चढ़ाना चाहिए। अगर भस्म उपलब्ध हो तो मिट्टी से भी मस्तक पर त्रिपुंड लगाने का विधान शास्त्रों में बताया गया है।  शिवजी के बहाने यह बताने की कोशिश की गई है कि जैसे भोले शंकर जल की धारा और बेल पत्र से संतुष्ट होते हैं ,




उसी प्रकार इस ऋतु में हमें भी अधिकाधिक जल और प्रकृति प्रदत्त चीजों पर जीवन यापन करना चाहिए। इस काल में रूखा - सूखा खाकर निर्वाह करने में ही भलाई है। सावन में विभिन्न साधनों से भगवान शंकर को प्रसन्न करने का उपक्रम किया जाता है। इनमें जलाभिषेक का विशेष महत्व है। शिव की कृपा पाने के लिए कांवड़ यात्रा का खूब चलन है। ऐसी यात्रा हमारे व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती है। कांवड़ यात्रा से हमारे भीतर संकल्प शक्ति और आत्मविश्वास जागता है। इसमें हम भक्ति के साथ -साथ अपनी शारीरिक क्षमता का भी आकलन करते हैं।




कांवड़ यात्रा लाभ - कांवड़ यात्रा का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह हमें कष्टप्रद स्थितियों में भी संयमित और नम्र बने रहना सिखाता है। हम लंबी पैदल यात्रा से थके होते हैं। भोजन और विश्राम मिलने का कोई ठिकाना नहीं होता। फिर भी अपना संयम नहीं छोड़ते , अपने उद्देश्य को नहीं भूलते। एक सच्चे भक्त की तरह नम्र और विनीत बने रहते हैं। इसलिए कांवड़ यात्रा में जो किसी भी कारण से रौद्र रूप अपनाते हैं , वे यात्रा के मूल उद्देश्य से भटक जाते हैं। कांवड़ यात्रा का एक महत्व यह भी है कि यह हमारे व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती है। लंबी कांवड़ यात्रा से हमारे मन में संकल्प शक्ति और आत्म विश्वास जागता है। हम अपनी क्षमताओं को पहचान सकते हैं, अपनी शक्ति का अनुमान भी लगा सकते हैं। 



एक तरह से कांवड़ यात्रा शिव भक्ति का एक रास्ता तो है ही साथ ही यह हमारे व्यक्तिगत विकास में भी सहायक है। यही वजह है कि श्रावण में लाखों श्रद्धालु कांवड़ में पवित्र जल लेकर एक स्थान से लेकर दूसरे स्थान जाकर शिवलिंगों का जलाभिषेक करते हैं। शिव भूतनाथ, पशुपतिनाथ, अमरनाथ आदि सब रूपों में कहीं कहीं जल, मिट्टी, रेत, शिला, फल, पेड़ के रूप में पूजनीय हैं। जल साक्षात् शिव है, तो जल के ही जमे रूप में अमरनाथ हैं। बेल शिववृक्ष है तो मिट्टी में पार्थिव लिंग है। गंगाजल, पारद, पाषाण, धतूराफल आदि सबमें शिव सत्ता मानी गई है। अतः सब प्राणियों, जड़-जंगम पदार्थों में स्वयं भूतनाथ पशुपतिनाथ की सुगमता और सुलभता ही तो आपको देवाधिदेव महादेव सिद्ध करती है।












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