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हस्तमुद्रा - औषधीय एवं आध्यात्मिक लाभ

हस्तमुद्रा - औषधीय एवं आध्यात्मिक लाभ

योग अनुसार आसन और प्राणायाम की स्थिति को मुद्रा कहा जाता है। बंध, क्रिया और मुद्रा में आसन और प्राणायाम दोनों का ही कार्य होता है। योग में मुद्राओं को आसन और प्राणायाम से भी बढ़कर माना जाता है। आसन से शरीर की हड्डियाँ लचीली और मजबूत होती है जबकि मुद्राओं से शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है। मुद्राओं का संबंध शरीर के खुद काम करने वाले अंगों और स्नायुओं से है। मुद्राओं की संख्या को लेकर काफी मतभेद पाए जाते हैं। मुद्रा और दूसरे योगासनों के बारे में बताने वाला सबसे पुराना ग्रंथ घेरण्ड संहिता है। हठयोग पर आधारित इस ग्रंथ को महर्षि घेरण्ड ने लिखा था। घेरंड में 25 और हठयोग प्रदीपिका में 10 मुद्राओं का उल्लेख मिलता है, लेकिन सभी योग के ग्रंथों की मुद्राओं को मिलाकर कुल 50 से 60 हस्त मुद्राएँ हैं। मानव-सरीर अनन्त रहस्यों से भरा हुआ है शरीर की अपनी एक मुद्रामयी भाषा है जिसे करने से शारीरिक स्वास्थ्य-लाभ में सहयोग होता है यह शरीर पंच तत्त्वों के योग से बना है पाँच तत्त्व ये हैं- (1) पृथ्वी, (2) जल, (3) अग्नि, (4) वायु, एवं (5) आकाश हस्त-मुद्रा-चिकित्सा के अनुसार हाथ तथा हाथों की अँगुलियों और अँगुलियों से बनने वाली मुद्राओं में आरोग्य का राज छिपा हुआ है हाथ की अँगुलियों में पंचतत्त्व प्रतिष्ठित हैं अँगुली में पंच तत्व - हाथों की 10 अँगुलियों से विशेष प्रकार की आकृतियाँ बनाना ही हस्त मुद्रा कही गई है। हाथों की सारी अँगुलियों में पाँचों तत्व मौजूद होते हैं जैसे अँगूठे में अग्नि तत्व, तर्जनी अँगुली में वायु तत्व, मध्यमा अँगुली में आकाश तत्व, अनामिका अँगुली में पृथ्वी तत्व और कनिष्का अँगुली में जल तत्व। अँगुलियों के पाँचों वर्ग से अलग-अलग विद्युत धारा बहती है। इसलिए मुद्रा विज्ञान में जब अँगुलियों का रोगानुसार आपसी स्पर्श करते हैं, तब रुकी हुई या असंतुलित विद्युत बहकर शरीर की शक्ति को पुनः जाग देती है और हमारा शरीर निरोग होने लगता है। ये अद्भुत मुद्राएँ करते ही यह अपना असर दिखाना शुरू कर देती हैं।
महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयान बंध, मूलबंध, जालंधर बंध, विपरीत करणी, बज्रोली और शक्ति चालन। उक्त 10 मुद्राओं को सही तरीके से अभ्यास करने से बुढ़ापा जल्दी नहीं सकता। दो मुद्राओं को विशेष रूप से कुंडलिनी जागरण में उपयोगी माना गया है- सांभवी मुद्रा, खेचरी मुद्रा।
मुद्राओं के प्रकार - मुख्यतः 6 आसन मुद्राएँ - 1.व्रक्त मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शोभवनी मुद्रा। जगतगुरु रामानंद स्वामी पंच मुद्राओं को भी राजयोग का साधन मानते हैं, ये है- 1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्युनी मुद्रा।
 दस हस्त मुद्राएँ -(1) ज्ञान मुद्रा, (2) पृथ्वी मुद्रा, (3)वरुण मुद्रा, (4)वायु मुद्रा, (5)शून्य मुद्रा, (6)सूर्य मुद्रा, (7)प्राण मुद्रा, (8)लिंग मुद्रा, (9)अपान मुद्रा, (10)अपान वायु मुद्रा।
मुद्राओं का उपयोग कुंडलिनी या ऊर्जा स्रोत को जाग्रत करने के लिए मुद्राओं का अभ्यास सहायक सिद्ध होता है। कुछ मुद्राओं के अभ्यास से आरोग्य और दीर्घायु प्राप्त की जा सकती है। इससे योगानुसार अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों की प्राप्ति संभव है। यह संपूर्ण योग का सार स्वरूप है।


1.सहज हस्त मुद्रा - सहज मुद्रा एक हस्तमुद्रा जो कि बहुत ही सरल है। सहज मुद्रा वरुण मुद्रा की तरह है। बस थोड़ा सा ही फर्क है। वरुण मुद्रा में तीनों आंगुलियां मिलाकर रखते हैं जबकि इसमें नहीं। सहज हस्त मुद्रा करने की विधि दोनों हाथों के अंगूठे के प्रथम पोर को सबसे छोटी अंगुली के प्रथम पोर से मिलाने पर सहज मुद्रा बनती है। बाकी की सारी अंगुलियां को आपस में मिलाने की जरूरत नहीं। सहज मुद्रा का नियमित सिर्फ 30 दिन तक ही अभ्यास कर सकते हैं इससे ज्यादा नहीं। सहज हस्त मुद्रा का  अभ्यास करने से शरीर सुंदर और कोमल बनता है। इस मुद्रा को करने से शरीर का रुखापन समाप्त हो जाता है। शरीर की त्वचा पर यदि छोटे-छोटे दाने, पित्त उछलते हो या पूरे शरीर पर लाल निशान पड़ गए हैं तो इसका नियमित अभ्यास करें। यह शरीर की खुजली में भी लाभदायक है।

2.रज हस्त मुद्रा योग - यह मुद्रा महिलाओं के लिए विषेषतौर पर रजस्वला स्त्री के लिए लाभकारी है रज मुद्रा योग। श्रजश् जो स्त्री के मासिक काल में निकलता है- रजस्वला स्त्री। दूसरा रज एक गुण विशेष का नाम है जैसे रजोगुण। तीसरा रज का अर्थ होता है जल। मूलतरू रज का संबंध स्त्री से है इसलिए यह मुद्रा (त्ंर उनकतं लवहं) विशेष तौर पर स्त्रियों के लिए है। रज मुद्रा योग करने का तरीका कनिष्ठा (छोटी अंगुली) अंगुली को हथेली की जड़ में मोड़कर लगाने से तथा बाकि तीनों अंगुलिया सीधी रखते हुए रज मुद्रा बन जाती है। इस मुद्रा का    अभ्यास करने से मासिकधर्म से संबंधित कोई परेशानी कभी नहीं होगी। स्त्री के सारे प्रजनन अंगों की परेशानियों को ये मुद्रा बिल्कुल दूर कर देती है। इसके अलावा सिर का भारीपन रहना, छाती में दर्द, पेट, पीठ, कमर का दर्द आदि रोगों में रजमुद्रा का अभ्यास बहुत ही लाभकारी है। रजमुद्रा करने से केवल स्त्रियों को ही नहीं लाभ होता बल्कि अगर पुरुष इस मुद्रा को करता है तो उनके वीर्य संबंधी रोग समाप्त हो जाते हैं। 





3.योनि मुद्रा योग - यौगिक दृष्टि योग मुद्राओं में योनि मुद्रा को भी खास महत्व मिला हुआ है। हालांकि तंत्रशास्त्र में इसका अलग महत्व है लेकिन यहां यह मुद्रा प्राणवायु के लिए उत्तम मानी गई है। यह बड़ी चमत्कारी मुद्रा है इस योनि हस्त मुद्रा योग के निरंतर अभ्यास के साथ मूलबंध क्रिया भी की जाती है। योनि मुद्रा को तीन तरह से किया जाता है। ध्यान के लिए अलग, सामान्य मुद्रा अलग लेकिन यहां प्रस्तुत है कठिनाई से बनने वाली मुद्रा का विवरण। योनि मुद्रा करने के लिए पहले किसी भी सुखासन की स्थिति में बैठ जाएं। फिर दोनों हाथों की अंगुलियों का उपयोग करते हुए सबसे पहले दोनों कनिष्ठा अंगुलियों को आपस में मिलाएं और दोनों अंगूठे के प्रथम पोर को कनिष्ठा के अंतिम पोर से स्पर्श करें। फिर कनिष्ठा अंगुलियों के नीचे दोनों मध्यमा अंगुलियों को रखते हुए उनके प्रथम पोर को आपस में मिलाएं। मध्यमा अंगुलियों के नीचे अनामिका अंगुलियों को एक-दूसरे के विपरीत रखें और उनके दोनों नाखुनों को तर्जनी अंगुली के प्रथम पोर से दबाएं। इसका आध्यात्मिक लाभयोनि मुद्रा बनाकर और पूर्व मूलबंध की स्थिति में सम्यक् भाव से स्थित होकर प्राण-अपान को मिलाने की प्रबल भावना के साथ मूलाधार स्थान पर यौगिक संयम करने से कई प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं भौतिक लाभ - अंगूठा शरीर के भीतर की अग्नि को कंट्रोल करता है। तर्जनी अंगुली से वायु तत्व कंट्रोल में होता है। मध्यमा और अनामिका शरीर के पृथ्वी तत्व को कंट्रोल करती है। कनिष्ठा अंगुली से जल तत्व कंट्रोल में रहता है।



4. .ज्ञान मुद्रा - अंगूठे एवं तर्जनी अंगुली के स्पर्श से जो मुद्रा बनती है उसे ज्ञान मुद्रा कहते हैं   पदमासन या सुखासन में बैठ जाएँ तथा  अपने दोनों हाथों को घुटनों पर रख लें तथा अंगूठे के पास वाली अंगुली (तर्जनी) के उपर के पोर को अंगूठे के ऊपर वाले पोर से स्पर्श कराएँ हाँथ की बाकि अंगुलिया सीधी एक साथ मिलाकर रखें प्रतिदिन प्रातः, दोपहर एवं सांयकाल इस मुद्रा को किया जा सकता है   प्रतिदिन 48 मिनट या अपनी सुविधानुसार इससे अधिक समय तक ज्ञान मुद्रा को किया जा सकता है यदि एक बार में 48 मिनट करना संभव हो तो तीनों समय 16-16 मिनट तक कर सकते हैं पूर्ण लाभ के लिए प्रतिदिन कम से कम 48 मिनट ज्ञान मुद्रा को करना चाहिए ज्ञान मुद्रा विद्यार्थियों के लिए अत्यंत लाभकारी मुद्रा है, इसके अभ्यास से बुद्धि का विकास होता है,स्मृति शक्ति एकाग्रता बढती है एवं पढ़ाई में मन लगने लगता है   ज्ञान मुद्रा के अभ्यास से अनिद्रा,सिरदर्द, क्रोध, चिड़चिड़ापन, तनाव,बेसब्री, एवं चिंता नष्ट हो जाती है ज्ञान मुद्रा करने से हिस्टीरिया रोग समाप्त हो जाता है नियमित रूप से ज्ञान मुद्रा करने से मानसिक विकारों एवं नशा करने की लत से छुटकारा मिल जाता है इस मुद्रा के अभ्यास से आमाशयिक शक्ति बढ़ती है जिससे पाचन सम्बन्धी रोगों में लाभ मिलता है ज्ञान मुद्रा के अभ्यास से स्नायु मंडल मजबूत होता है आध्यात्मिक लाभ - ज्ञान मुद्रा में ध्यान का अभ्यास करने से एकाग्रता बढ़ती है जिससे ध्यान परिपक्व होकर व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति करता है   ज्ञान मुद्रा के अभ्यास से साधक में दया,निडरता,मैत्री,शान्ति जैसे भाव जाग्रत होते हैं इस मुद्रा को करने से संकल्प शक्ति में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि होती है




5. पृथ्वी मुद्रा - वज्रासन की स्थिति में दोनों पैरों के घुटनों को मोड़कर बैठ जाएं,रीढ़ की हड्डी सीधी रहे एवं दोनों पैर अंगूठे के आगे से मिले रहने चाहिए। एड़िया सटी रहें। नितम्ब का भाग एड़ियों पर टिकाना लाभकारी होता है। यदि वज्रासन में बैठ सकें तो पदमासन या सुखासन में बैठ सकते हैं दोनों हांथों को घुटनों पर रखें , हथेलियाँ ऊपर की तरफ रहें   अपने हाथ की अनामिका अंगुली (सबसे छोटी अंगुली के पास वाली अंगुली) के अगले पोर को अंगूठे के ऊपर के पोर से स्पर्श कराएँ हाथ की बाकी सारी अंगुलिया बिल्कुल सीधी रहें   वैसे तो पृथ्वी मुद्रा को किसी भी आसन में किया जा सकता है, परन्तु इसे वज्रासन में करना अधिक लाभकारी है, अतः यथासंभव इस मुद्रा को वज्रासन में बैठकर करना चाहिए   पृथ्वी मुद्रा को प्रातः सायं 24-24 मिनट करना चाहिए वैसे किसी भी समय एवं कहीं भी इस मुद्रा को कर सकते हैं। चिकित्सकीय लाभ - जिन लोगों को भोजन पचने का या गैस का रोग हो उनको भोजन करने के बाद 5 मिनट तकवज्रासन में बैठकर पृथ्वी मुद्रा करने से अत्यधिक लाभ होता है   पृथ्वी मुद्रा के अभ्यास से आंख, कान, नाक और गले के समस्त रोग दूर हो जाते हैं। पृथ्वी मुद्रा करने से कंठ सुरीला हो जाता है इस मुद्रा को करने से गले में बार-बार खराश होना, गले में दर्द रहना जैसे रोगों में बहुत लाभ होता है।  पृथ्वी मुद्रा से मन में हल्कापन महसूस होता है एवं शरीर ताकतवर और मजबूत बनता है। पृथ्वी मुद्रा को प्रतिदिन करने से महिलाओं की खूबसूरती बढ़ती है, चेहरा सुंदर हो जाता है एवं पूरे शरीर में चमक पैदा हो जाती है।  पृथ्वी मुद्रा के अभ्यास से स्मृति शक्ति बढ़ती है एवं मस्तिष्क में ऊर्जा बढ़ती है। पृथ्वी मुद्रा करने से दुबले-पतले लोगों का वजन बढ़ता है। शरीर में ठोस तत्व और तेल की मात्रा बढ़ाने के लिए पृथ्वी मुद्रा सर्वोत्तम है। आध्यात्मिक लाभ - हस्त मुद्राओं में पृथ्वी मुद्रा का बहुत महत्व है,यह हमारे भीतर के पृथ्वी तत्व को जागृत करती है।  पृथ्वी मुद्रा के अभ्यास से मन में वैराग्य भाव उत्पन्न होता है   जिस प्रकार से पृथ्वी माँ प्रत्येक स्थिति जैसे-सर्दी,गर्मी,वर्षा आदि को सहन करती है एवं प्राणियों द्वारा मल-मूत्र आदि से स्वयं गन्दा होने के वाबजूद उन्हें क्षमा कर देती है पृथ्वी माँ आकार में ही नही वरन ह्रदय से भी विशाल है द्य पृथ्वी मुद्रा के अभ्यास से इसी प्रकार के गुण साधक में भी विकसित होने लगते हैं यह मुद्रा विचार शक्ति को उनन्त बनाने में मदद करती है।



6. वरुण मुद्रा - पदमासन या सुखासन में बैठ जाएँ द्य रीढ़ की हड्डी सीधी रहे एवं दोनों हाथ घुटनों पर रखें सबसे छोटी अँगुली (कनिष्ठा)के उपर वाले पोर को अँगूठे के उपरी पोर से स्पर्श करते हुए हल्का सा दबाएँ। बाकी की तीनों अँगुलियों को सीधा करके रखें। सामान्य व्यक्तियों को भी सर्दी के मौसम में वरुण मुद्रा का अभ्यास अधिक समय तक नही करना चाहिए गर्मी अन्य मौसम में इस मुद्रा को प्रातः सायं 24-24 मिनट तक किया जा सकता है।  वरुण मुद्रा का अभ्यास प्रातः-सायं अधिकतम 24-24 मिनट तक करना उत्तम है, वैसे इस मुद्रा को किसी भी समय किया जा सकता हैं। चिकित्सकीय लाभ  - वरुण मुद्रा शरीर के जल तत्व सन्तुलित कर जल की कमी से होने वाले समस्त रोगों को नष्ट करती है। वरुण मुद्रा स्नायुओं के दर्द, आंतों की सूजन में लाभकारी है इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर से अत्यधिक पसीना आना समाप्त हो जाता है वरुण मुद्रा के नियमित अभ्यास से रक्त शुद्ध होता है एवं त्वचा रोग शरीर का रूखापन नष्ट होता है। यह मुद्रा शरीर के यौवन को बनाये रखती है द्य शरीर को लचीला बनाने में भी यह लाभप्रद है वरुण मुद्रा करने से अत्यधिक प्यास शांत होती है। आध्यात्मिक लाभ - जल तत्व (कनिष्ठा) और अग्नि तत्व (अंगूठे) को एकसाथ मिलाने से शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन होता है इससे साधक के कार्यों में निरंतरता का संचार होता है



7. वायु मुद्रावज्रासन या सुखासन में बैठ जाएँ,रीढ़ की हड्डी सीधी एवं दोनों हाथ घुटनों पर रखें द्य हथेलियाँ उपर की ओर रखें   अंगूठे के बगल वाली (तर्जनी) अंगुली को हथेली की तरफ मोडकर अंगूठे की जड़ में लगा दें वायु मुद्रा करने से शरीर का दर्द तुरंत बंद हो जाता है,अतः इसे अधिक लाभ की लालसा में अनावश्यक रूप से अधिक समय तक नही करना चाहिए अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है   वायु मुद्रा करने के बाद कुछ देर तक अनुलोम-विलोम दूसरे प्राणायाम करने से अधिक लाभ होता है   इस मुद्रा को यथासंभव वज्रासन में बैठकर करें, वज्रासन में बैठ पाने की स्थिति में अन्य आसन या कुर्सी पर बैठकर भी कर सकते हैं   वायु मुद्रा का अभ्यास प्रातः,दोपहर एवं सायंकाल 8-8 मिनट के लिए किया जा सकता है चिकित्सकीय लाभअपच गैस होने पर भोजन के तुरंत वाद वज्रासन में बैठकर 5 मिनट तक वायु मुद्रा करने से यह रोग नष्ट हो जाता है   वायु मुद्रा के नियमित अभ्यास से लकवा,गठिया, साइटिका,गैस का दर्द,जोड़ों का दर्द,कमर गर्दन तथा रीढ़ के अन्य भागों में होने वाला दर्द में चमत्कारिक लाभ होता है वायु मुद्रा के अभ्यास से शरीर में वायु के असंतुलन से होने वाले समस्त रोग नष्ट हो जाते है।  इस मुद्रा को करने से कम्पवात, रेंगने वाला दर्द, दस्त ,कब्ज, एसिडिटी एवं पेट सम्बन्धी अन्य विकार समाप्त हो जाते हैं आध्यात्मिक लाभवायु मुद्रा के अभ्यास से ध्यान की अवस्था में मन की चंचलता समाप्त होकर मन एकाग्र होता है एवं सुषुम्ना नाड़ी में प्राण वायु का संचार होने लगता है जिससे चक्रों का जागरण होता है


8. शून्य - मध्यमा अँगुली (बीच की अंगुली) को हथेलियों की ओर मोड़ते हुए अँगूठे से उसके प्रथम पोर को दबाते हुए बाकी की अँगुलियों को सीधा रखने से शून्य मुद्रा बनती हैं। किसी आसन में बैठकर एकाग्रचित्त होकर शून्य मुद्रा करने से अधिक लाभ होता है   शून्य मुद्रा को प्रतिदिन तीन बार प्रातः,दोपहर,सायं 15-15 मिनट के लिए करना चाहिए द्य एक बार में भी 45 मिनट तक कर सकते हैं चिकित्सकीय लाभ - शून्य मुद्रा के निरंतर अभ्यास से कान के रोग जैसे कान में दर्द, बहरापन, कान का बहना, कानों में अजीब-अजीब सी आवाजें आना आदि समाप्त हो जाते हैं। कान दर्द होने पर शून्य मुद्रा को मात्र 5 मिनट तक करने से दर्द में चमत्कारिक प्रभाव होता है। शून्य मुद्रा गले के लगभग सभी रोगों में लाभकारी है   यह मुद्रा थायराइड ग्रंथि के रोग दूर करती है। शून्य मुद्रा शरीर के आलस्य को कम कर स्फूर्ति जगाती है।  इस मुद्रा को करने से मानसिक तनाव भी समाप्त हो जाता है आध्यात्मिक लाभ - शून्य मुद्रा के निरंतर अभ्यास से स्वाभाव में उन्मुक्तता आती है
  


9. सूर्य मुद्रा - सिद्धासन,पदमासन या सुखासन में बैठ जाएँ दोनों हाँथ घुटनों पर रख लें हथेलियाँ उपर की तरफ रहें अनामिका अंगुली (रिंग फिंगर) को मोडकर अंगूठे की जड़ में लगा लें एवं उपर से अंगूठे से दबा लें   बाकि की तीनों अंगुली सीधी रखें सूर्य मुद्रा करने से शरीर में गर्मी बढ़ती है अतः गर्मियों में मुद्रा करने से पहले एक गिलास पानी पी लेना चाहिए   प्रातः सूर्योदय के समय स्नान आदि से निवृत्त होकर इस मुद्रा को करना अधिक लाभदायक होता है द्य सांयकाल सूर्यास्त से पूर्व कर सकते हैं सूर्य मुद्रा को प्रारंभ में 8 मिनट से प्रारंभ करके 24 मिनट तक किया जा सकता है चिकित्सकीय लाभसूर्य मुद्रा को दिन में दो बार 16-16 मिनट करने से कोलेस्ट्राल घटता है   अनामिका अंगुली पृथ्वी एवं अंगूठा अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है , इन तत्वों के मिलन से शरीर में तुरंत उर्जा उत्पन्न हो जाती है   सूर्य मुद्रा के अभ्यास से मोटापा दूर होता है शरीर की सूजन दूर करने में भी यह मुद्रा लाभकारी है   सूर्य मुद्रा करने से पेट के रोग नष्ट हो जाते हैं   इस मुद्रा के अभ्यास से मानसिक तनाव दूर हो जाता है   प्रसव के बाद जिन स्त्रियों का मोटापा बढ़ जाता है उनके लिए सूर्य मुद्रा अत्यंत उपयोगी है द्य इसके अभ्यास से प्रसव उपरांत का मोटापा नष्ट होकर शरीर पहले जैसा बन जाता है आध्यात्मिक लाभ - सूर्य मुद्रा के अभ्यास से व्यक्ति में अंतर्ज्ञान जाग्रत होता है



10. प्राण मुद्रा - पद्मासन या सिद्धासन में बैठ जाएँ द्य रीढ़ की हड्डी सीधी रखें   अपने दोनों हाथों को घुटनों पर रख लें,हथेलियाँ ऊपर की तरफ रहें हाथ की सबसे छोटी अंगुली (कनिष्ठा) एवं इसके बगल वाली अंगुली (अनामिका) के पोर को अंगूठे के पोर से लगा दें प्राणमुद्रा से प्राणशक्ति बढती है यह शक्ति इन्द्रिय, मन और भावों के उचित उपयोग से धार्मिक बनती है। परन्तु यदि इसका सही उपयोग किया जाए तो यही शक्ति इन्द्रियों को आसक्ति, मन को अशांति और भावों को बुरी तरफ भी ले जा सकती है। इसलिए प्राणमुद्रा से बढ़ने वाली प्राणशक्ति का संतुलन बनाकर रखना चाहिए।  प्राणमुद्रा को एक दिन में अधिकतम 48 मिनट तक किया जा सकता है। यदि एक बार में 48 मिनट तक करना संभव हो तो प्रातः,दोपहर एवं सायं 16-16 मिनट कर सकते है। चिकित्सकीय लाभ - प्राणमुद्रा ह्रदय रोग में रामबाण है एवं नेत्रज्योति बढाने में यह मुद्रा बहुत सहायक है। इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से प्राण शक्ति की कमी दूर होकर व्यक्ति तेजस्वी बनता है।  प्राणमुद्रा से लकवा रोग के कारण आई कमजोरी दूर होकर शरीर शक्तिशाली बनता है   इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से मन की बैचेनी और कठोरता को दूर होती है एवं एकाग्रता बढ़ती है। आध्यात्मिक लाभप्राणमुद्रा को पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर करने से शक्ति जागृत होकर ऊर्ध्वमुखी हो जाती है, जिससे चक्र जाग्रत होते हैं एवं साधक अलौकिक शक्तियों से युक्त हो जाता है   प्राणमुद्रा में जल,पृथ्वी एवं अग्नि तत्व एक साथ मिलने से शरीर में रासायनिक परिवर्तन होता है जिससे व्यक्तित्व का विकास होता है।


11. लिंग मुद्रा - किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठ जाएँ   दोनों हाथों की अँगुलियों को परस्पर एक-दूसरे में फसायें (ग्रिप बनायें)   किसी भी एक अंगूठे को सीधा रखें तथा दूसरे अंगूठे से सीधे अंगूठे के पीछे से लाकर घेरा बना दें लिंग मुद्रा से शरीर मे गर्मी उत्पन्न होती है,इसलिए इस मुद्रा को करने के पश्चात् यदि गर्मी महसूस हो तो तुरंत पानी पी लेना चाहिए लिंग मुद्रा को नियत समय से अधिक नही करना चाहिए अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि संभव है   गर्मी के मौसम में इस मुद्रा को अधिक समय तक नहीं करना चाहिए   पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों को लिंग मुद्रा नही करनी चाहिए   लिंग मुद्रा को प्रातः-सायं 16-16 मिनट तक करना चाहिए चिकित्सकीय लाभसर्दी से ठिठुरता व्यक्ति यदि कुछ समय तक लिंग मुद्रा कर ले तो आश्चर्यजनक रूप से उसकी ठिठुरन दूर हो जाती है   लिंग मुद्रा के अभ्यास से जीर्ण नजला,जुकाम, साइनुसाइटिस,अस्थमा निमन् रक्तचाप का रोग नष्ट हो जाता है इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से कफयुक्त खांसी एवं छाती की जलन नष्ट हो जाती है यदि सर्दी लगकर बुखार रहा हो तो लिंग मुद्रा तुरंत असरकारक सिद्ध होती है लिंग मुद्रा के नियमित अभ्यास से अतिरिक्त कैलोरी बर्न होती हैं परिणाम स्वरुप मोटापा रोग समाप्त हो जाता है   लिंग मुद्रा पुरूषों के समस्त यौन रोगों में अचूक है इस मुद्रा के प्रयोग से स्त्रियों के मासिक स्त्राव सम्बंधित अनियमितता ठीक होती हैं लिंग मुद्रा के अभ्यास से टली हुई नाभि पुनः अपने स्थान पर जाती हैं आध्यात्मिक लाभयह मुद्रा पुरुषत्व का प्रतीक है इसीलिए इसे लिंग मुद्रा कहा जाता है। लिंग मुद्रा के अभ्यास से साधक में स्फूर्ति एवं उत्साह का संचार होता है यह मुद्रा ब्रह्मचर्य की रक्षा करती है , व्यक्तित्व को शांत आकर्षक बनाती है जिससे व्यक्ति आन्तरिक स्तर पर प्रसन्न रहता है

12. अपान मुद्रा - सुखासन या अन्य किसी आसान में बैठ जाएँ, दोनों हाथ घुटनों पर, हथेलियाँ उपर की तरफ एवं रीढ़ की हड्डी सीधी रखें मध्यमा (बीच की अंगुली)एवं अनामिका अंगुली के उपरी पोर को अंगूठे के उपरी पोर से स्पर्श कराके हल्का सा दबाएं द्य तर्जनी अंगुली एवं कनिष्ठा (सबसे छोटी) अंगुली सीधी रहे   अपान मुद्रा के अभ्यास काल में मूत्र अधिक मात्रा में आता है, क्योंकि इस मुद्रा के प्रभाव से शरीर के अधिकाधिक मात्रा में विष बाहर निकालने के प्रयास स्वरुप मूत्र ज्यादा आता है,इससे घबड़ाए नहीं अपान मुद्रा को दोनों हाथों से करना अधिक लाभदायक है,अतः यथासंभव इस मुद्रा को दोनों हाथों से करना चाहिए अपान मुद्रा को प्रातः,दोपहर,सायं 16-16 मिनट करना सर्वोत्तम है चिकित्सकीय लाभअपान मुद्रा के नियमित अभ्यास से कब्ज,गैस,गुर्दे तथा आंतों से सम्बंधित समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं   अपान मुद्रा बबासीर रोग के लिए अत्यंत लाभकारी है द्य इसके प्रयोग से बबासीर समूल नष्ट हो जाती है   यह मुद्रा मधुमेह के लिए लाभकारी है , इसके निरंतर प्रयोग से रक्त में शर्करा का स्तर सन्तुलित होता है   अपान मुद्रा शरीर के मल निष्कासक अंगों दृ त्वचा,गुर्दे एवं आंतों को सक्रिय करती है जिससे शरीर का बहुत सारा विष पसीना,मूत्र मल के रूप में बाहर निकल जाता है फलस्वरूप शरीर शुद्ध एवं निरोग हो जाता है आध्यात्मिक लाभअपान मुद्रा से प्राण एवं अपान वायु सन्तुलित होती है द्य इस मुद्रा में इन दोनों वायु के संयोग के फलस्वरूप साधक का मन एकाग्र होता है एवं वह समाधि को प्राप्त हो जाता है ।ऽ अपान मुद्रा के अभ्यास से स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र जाग्रत होते है

13. अपान वायु मुद्रा (ह्रदय मुद्रा) - सुखासन या अन्य किसी ध्यानात्मक आसन में बैठ जाएँ द्य दोनों हाथ घुटनों पर रखें, हथेलियाँ उपर की तरफ रहें एवं रीढ़ की हड्डी सीधी रहे   हाथ की तर्जनी (प्रथम) अंगुली को मोड़कर अंगूठे की जड़ में लगा दें तथा मध्यमा (बीच वाली अंगुली) अनामिका (तीसरी अंगुली) अंगुली के प्रथम पोर को अंगूठे के प्रथम पोर से स्पर्श कर हल्का दबाएँ   कनिष्ठिका (सबसे छोटी अंगुली) अंगुली सीधी रहे अपान वायु मुद्रा एक शक्तिशाली मुद्रा है इसमें एक साथ तीन तत्वों का मिलन अग्नि तत्व से होता है,इसलिए इसे निश्चित समय से अधिक नही करना चाहिए   अपान वायु मुद्रा करने का सर्वोत्तम समय प्रातः,दोपहर एवं सायंकाल है   इस मुद्रा को दिन में कुल 48 मिनट तक कर सकते हैं दिन में तीन बार 16-16 मिनट भी कर सकते हैं चिकित्सकीय लाभ - अपान वायु मुद्रा ह्रदय रोग के लिए रामवाण है इसी लिए इसे ह्रदय मुद्रा भी कहा जाता है   दिल का दौरा पड़ने पर यदि रोगी यह मुद्रा करने की स्थिति में हो तो तुरंत अपान वायु मुद्रा कर लेनी चाहिए इससे तुरंत लाभ होता है एवं हार्ट अटैक का खतरा टल जाता है   इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से रक्तचाप एवं अन्य ह्रदय सम्बन्धी रोग नष्ट हो जाते हैं   अपान वायु मुद्रा करने से आधे सिर का दर्द तत्काल रूप से कम हो जाता है एवं इसके नियमित अभ्यास से यह रोग समूल नष्ट हो जाता है यह मुद्रा उदर विकार को समाप्त करती है अपच,गैस,एसिडिटी,कब्ज जैसे रोगों में अत्यंत लाभकारी है अपान वायु मुद्रा करने से गठिया एवं आर्थराइटिस रोग में लाभ होता है आध्यात्मिक लाभ - अपान वायु मुद्रा अग्नि,वायु,आकाश एवं पृथ्वी तत्व के मिलन से बनती है   इस मुद्रा के प्रभाव से साधक में सहनशीलता,स्थिरता,व्यापकता और तेज का संचार होता है

Comments

  1. अच्छी जानकारी मिली. बहुत दिनों से मुद्रा के बारे में जानना चाहता था....

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  2. अच्छी जानकारी मिली. बहुत दिनों से मुद्रा के बारे में जानना चाहता था....

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  3. Bahut achhi jankari di hai aapne.Aapka Dhanywad !
    marathi me ye jankari mil sakti hai kya?
    pl.inform to arun.pjadhav@gmail.com

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हाथी मोती ( गज मणि ) गज मणि हल्के हरे - भूरे रंग के , अंडाकार आकार का मोती , जिसकी जादुई और औषधीय  शक्ति    सर्वमान्य   है । यह हाथी मोती   एक लाख हाथियों में से एक में पाये जाने वाला मोती का एक रूप है। मोती अत्यंत दुर्लभ है और इसलिए महंगा भी है जिस किसी के पास यह होता है वह बहुत भाग्यषाली होता है इसे एक अनमोल खजाने की तरह माना गया है । इसके अलौकिक होने के प्रमाण हेतु अगर इसे साफ पानी में रखा जाए तो पानी दूधिया हो जाता है । इसी तरह अगर स्टेथोस्कोप से जांचने पर उसके दिन की धड़कन सुनी जा सकती है । अगर इसे हाथ में रखा जाता है तो थोड़ा कंपन महसूह किया जा सकता है ।   अगर गज मणि को आप नारयिल पानी में रखत हैं तो बुलबुले पैदा होने लगते हैं और पानी की मात्रा भी कम हो जाती है । चिकित्सकीय लाभ में जोड़ों के दर्द , बच्चे न पैदा होने की असमर्थता के इलाज और तनाव से राहत के

पुष्कर - पौराणिक एवं धार्मिक महत्व

पुष्कर - पौराणिक एवं धार्मिक महत्व पुष्कर ब्रह्मा के मंदिर और ऊँटों के व्यापार मेले के लिए प्रसिद्ध है। पुष्कर का शाब्दिक अर्थ है तालाब और पुराणों में वर्णित तीर्थों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। राजस्थान के शहर अजमेर में कई पर्यटन स्थल है जिनमें से ये एक है। अनेक पौराणिक कथाएं इसका प्रमाण हैं। यहाँ से प्रागैतिहासिक कालीन पाषाण निर्मित अस्त्र - शस्त्र मिले हैं , जो उस युग में यहाँ पर मानव के क्रिया - कलापों की ओर संकेत करते हैं। हिंदुओं के समान ही बौद्धों के लिए भी पुष्कर पवित्र स्थान रहा है। भगवान बुद्ध ने यहां ब्राह्मणों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी। फलस्वरूप बौद्धों की एक नई शाखा पौष्करायिणी स्थापित हुई। शंकराचार्य , जिन सूरी और जिन वल्लभ सूरी , हिमगिरि , पुष्पक , ईशिदत्त आदि विद्वानों के नाम पुष्कर से जुड़े हुए हैं।   चैहान राजा अरणोराज के काल में विशाल शास्त्रार्थ हुआ था। इसमें अजमेर के जैन विद्वान जिन सूरी और ज