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सावन के झूले -2015


सावन के झूले -2015


सावन आयो, झूले पड़ गयो, सखी रे, सावन आयो 



सावन का महीना आते ही गांव के मोहल्लों में झूले पड़ जाते हैं और सावन की मल्हारें गूंजने लगती हैं। ग्रामीण युवतियां महिलाएं एक जगह देर रात तक श्रावणी गीत गाकर झूला झूलने का आनंद लेती हैं। वहीं जिन नव विवाहिता वधुओं के पति दूरस्थ स्थानों पर थे उनकों इंगित करते हुए विरह गीत सुनना अपने आप में लोक कला का ज्वलंत उदाहरण हुआ करते थे। झूले की पैंगों पर बुदियों भी जोशीले अंदाज में गायन शैली मात्र यादों में सिमट कर रह गई है। सामाजिक समरसता की मिसाल, जाति पाति के बंधन से मुक्त अल्हड़पन लिए बालाएं उनकी सुरीली किलकारियां भारतीय सभ्यता को अपने में समेटे हुए सांकेतिक लोकगीत जैसे किसी दिली आकांक्षा की कहानी क्यों करते थे उसका अंदाज ही निराला है।



















सावन को अपनी मस्ती में सराबोर देखना हो, तो किसी भी गाँव में चले जाएँ, जहां पेड़ों पर झूला डाले किशोरियाँ, नवयुवतियाँ या फिर महिलाएँ अनायास ही दिख जाएँगी. सावन के ये झूले मस्ती और अठखेलियों का प्रतीक होते हैं पूरे गाँव में आम, नीम, इमली के पेड़ों पर कई जगह झूले बाँधे जाते थे, हम सब उस पर झूलते थे. ऐसा नहीं था कि केवल किशोरियाँ या स्त्रियाँ ही झूलती हों. किशोर, अधेड़, बच्चे सभी झूलते थे. विशेष बात यह थी कि सभी जाति के लोग झूलते थे. जिस झूले पर ब्राह्मण का छोरा झूलता, उसी पर पहले या बाद में हरिजन की छोरी या छोरा भी झूलता था. एक बात अवश्य थी, सब साथ-साथ नहीं झूलते थे.



















जातिगत दूरी बनी ही रहती थी. यह दूरी झूले, रस्सी, पेड़ और स्थान को लेकर नहीं थी, व्यक्ति को लेकर थी. कुछ लोग हमें अपने समय पर झूलने का आनंद नहीं लेने देते थे. हम साथियों के साथ उन्हें झूलता देखते रहते. दिन में तो हमें झूलने का अवसर कम ही मिलता. पर रात को, उस वक्त तो मैदान साफ मिलता. हम कुछ लोग रात में ही झूलते. खूब झूलते सावन का झूला हम सबको मिला है माँ की बाँहों के झूले के रूप में. कभी पिता, कभी दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, भैया-भाभी या फिर दीदी की बाँहों का झूला. भला कौन भूल पाया है?













स्वास्थ्यवर्धक हैं सावन के झूले - प्राचीन काल से परम्परागत रूप से सावन में झूला झूलने को प्राचीन परम्परा परिपालन या मात्र मनोरंजन की दृष्टि से नहीं देखिए। इन झूलों में झूलने से अच्छे स्वास्थ्य का लाभ भी मिलता है। ज्येष्ठ महीने की तपन और आषाढ़ के उमस भरे दिनों के पश्चात् सभी को सावन की ठण्डी फुहारों, मनोरम मौसम की विकलता से प्रतीक्षा होती है। सावन की रिमझिम बरसती बूंदें जब प्यासी धरती पर पड़ती है, उस समय मिट्टी से उठने वाली सोंधी-सोंधी सुगन्ध सभी का मन मोह लेती है। उस महीने में जितने तीज त्यौहार आते हैं संभवतरू उतने अन्य किसी महीन में नहीं आते। सावन के महीने में झूला झूलने की परम्परा सदियों में चली रही है।




















वैसे तो वर्तमान से सबी के घरों में बारहमासी झूला स्थापित होता है जो हाल में, कमरे में, लान में, छज्जा में, छत में या पोर्च में कहीं कहीं लगा होता है किन्तु सावन में उपवन में लगे झूले के प्रति मन में विशेष उल्लास, उमंग, उत्कंठा होती है। वास्तव में झूला झूलना मात्र आनंद की अनुभूति नहीं कराता अपितु यह स्वास्थ्यवर्धक प्राचीन योग है जो सावन के मनोरम मौसम के कारण प्रदूषण मुक्त कई शुध्द वायु देता है और स्वास्थ्य प्रदायक है। सावन महीने की विशेषता है कि इस माह हवा अन्य महीनों की तुलना में अधिक शुध्द होती है। 




वर्षा होने से हवा में उड़ने वाले धूल, धूएं के कण, पानी में घुलनशील सभी हानिकारक गैसें भी वर्षा के जल के साथ-साथ धरती पर आती हैं और भूमि में समा जाती हैं और शुध्द हवा में झूलना स्वास्थ्य के लिए उत्तम है। सावन में चहुंदिशा हरियाली छाई होती है। हरा रंग आंखों पर अनुकूल प्रभाव डालता है। इससे नेत्र ज्योति बढ़ती है। झूलते समय दृश्य कभी समीप और कभी बंद होती हैं। इस सब सह उपक्रम के कारण सावन में झूले के माध्यम से नेत्रों का सम्पूर्ण व्यायाम हो जाता है। जो नेत्र-हितकारी है। झूला झूलने से हमारे मन मस्तिष्क में हर्ष और उल्लास की वृध्दि होती है। इसके कारण ग्रीवा की नसों में पैदा होने वाला तनाव न्यून होता है जिससे स्मरण शक्ति तीव्र होती है। झूला झूलते समय श्वांस-उच्छवास लेने की गति में तीव्रता आती है।




इससे फेफड़े सुदृढ़ होते हैं। इसके साथ ही झूलते समय श्वांस अधिक भरा, रोका एवं वेग से छोड़ा जाता है। इससे नवीन प्रकार का प्राणायाम पूर्ण हो जाता है जो स्वास्थ्य सहयोगी है। झूलते समय डोरे (रस्सी) पर हाथों की पकड़ सुदृढ़ होती है। इसी प्रकार खड़े होकर झूलते समय झूले को गति देने बार-बार उठक-बैठक लगानी पड़ती हैं। इन क्रियाओं से एक ओर हाथ, हथेलियों और उंगलियों की शक्ति बढ़ती है वहीं दूसरी ओर हाथ-पैर और पीठ-रीढ़ का व्यायाम हो जाता है। यह अच्छे स्वास्थ्य का कारक है।























सावन के महीने में नवविवाहित महिलाओं को अपने मायके जाने की परंपरा ब्रज क्षेत्र की   संस्कृति में अधिक परिलक्षित होती है, जो आज भी अनवरत रूप से चली रही है। इसलिए सावन के महीने में ब्रज क्षेत्र के घर-घर और गली-मोहल्लों में झूले पर झूलती हुई अविवाहित कुमारियाँ अपने माता-पिता और सगे-संबंधियों से यह आग्रह करती हैं कि उनका विवाह कहीं पास के गाँव में ही किया जाय, कि कहीं ज्यादा दूर के गाँव में, अन्यथा कहीं ऐसा हो कि उसके माता-पिता और रिश्तेदार सावन के महीने में उसे अपने घर बुला भी पाएँ।



भगवान कृष्ण और राधा की रासभूमि पर सावन की बहार में स्वयं भगवान भी झूलने का मोह संवरण नहीं कर पाते। सावन के दिनों में ब्रज में रिमझिम-रिमझिम बरसात में भगवान राधा-कृष्ण को भी झूलों पर झुलाया जाता है। भगवान के झूलों को हिंडोला कहते हैं। ब्रज के मंदिरों में विशेष प्रकार के झूले डालकर और उनमें आराध्य देव की प्रतिमाओं को बिठाकर झूला झुलाने की प्रथा यहाँ अनादिकाल से चली रही है। सावन के महीने में मंदिरों में विभिन्न प्रकार की झाँकियाँ सजाई जाती हैं और भक्त गण भगवान के झूले की डोर को खींचकर उन्हें झुलाने में स्वयं को कृतार्थ समझते हैं और गा उठते हैं - सावन के झूले पड़े।




















सावन महीने में महिलाओं और लड़कियों की बगीचों में झूला झूलने की वर्षों पुरानी परपंरा है.   सावन के महीने में हर गांव की महिलाएं और लड़कियां आम, कदम और महुआ के पेड़ों में झूला डालकर सावन के झूले का लुत्फ उठाती नजर आती हैं लेकिन अब धीरे-धीरे यह परंपरा खत्म होती जा रही है और अब गांवों में इक्के-दुक्के झूले ही दिखाई दे रहे हैं। सावन में एक ओर शिवालयों में भीड़ बढ़ जाती है, तो दूसरी ओर युवा झूले झूलकर अपने आनंद और उत्साह को दोगुना कर रहे है।






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