पुष्कर - पौराणिक एवं धार्मिक
महत्व
पुष्कर ब्रह्मा के मंदिर
और ऊँटों के
व्यापार मेले के
लिए प्रसिद्ध है।
पुष्कर का शाब्दिक
अर्थ है तालाब
और पुराणों में
वर्णित तीर्थों में इसका
महत्त्वपूर्ण स्थान है। राजस्थान
के शहर अजमेर
में कई पर्यटन
स्थल है जिनमें
से ये एक
है। अनेक पौराणिक
कथाएं इसका प्रमाण
हैं। यहाँ से
प्रागैतिहासिक कालीन पाषाण निर्मित
अस्त्र-शस्त्र मिले हैं,
जो उस युग
में यहाँ पर
मानव के क्रिया-कलापों की ओर
संकेत करते हैं।
हिंदुओं के समान
ही बौद्धों के
लिए भी पुष्कर
पवित्र स्थान रहा है।
भगवान बुद्ध ने
यहां ब्राह्मणों को
बौद्ध धर्म की
दीक्षा दी थी।
फलस्वरूप बौद्धों की एक
नई शाखा पौष्करायिणी
स्थापित हुई। शंकराचार्य,
जिन सूरी और
जिन वल्लभ सूरी,
हिमगिरि, पुष्पक, ईशिदत्त आदि
विद्वानों के नाम
पुष्कर से जुड़े
हुए हैं।
चैहान
राजा अरणोराज के
काल में विशाल
शास्त्रार्थ हुआ था।
इसमें अजमेर के
जैन विद्वान जिन
सूरी और जिन
वल्लभ सूरी ने
भाग लिया था।
पांच सौ साल
पहले निम्बार्काचार्य परशुराम
देवाचार्य निकटवर्ती निम्बार्क तीर्थ
से रोज यहां
स्नानार्थ आते थे।
वल्लभाचार्य महाप्रभु ने यहां
श्रीमद्भागवत कथा की।
गुरुनानक देव ने
यहाँ ग्रंथ साहब
का पाठ किया
और सन् 1662 में
गुरु गोविंद सिंह
ने भी गऊघाट
पर संगत की।
ईसा पश्चात 1809 में
मराठा सरदारों ने
इसका पुनर्निर्माण करवाया।
यही वह स्थान
है, जहां गुरु
गोविंदसिंह ने संवत
1762 (ईसा पश्चात 1705) में गुरुग्रंथ
साहब का पाठ
किया।
1. पुष्कर और अजमेर
पुष्कर, अजमेर - महाभारत में
महाराजा युधिष्ठिर के यात्रा
वृतांत के वर्णन
में यह उल्लेख
मिलता है कि
महाराजा को जंगलों
में होते हुए
छोटी-छोटी नदियों
को पार करते
हुए पुष्कर के
जल में स्नान
करना चाहिए। महाभारत
काल की पुष्टि
करते कुछ सिक्के
भी खुदाई में
मिले हैं। कहा
जाता है कि
पांडवों ने अपने
वनवास काल के
कुछ दिन पुष्कर
में ही बिताए
थे। उन्हीं के
नाम पर यहाँ
पंचकुंड बना हुआ
है। सुभद्रा हरण
के बाद अर्जुन
ने पुष्कर में
कुछ समय विश्राम
किया था। अगस्त्य,
वामदेव, जमदग्नि, भृतहरि ऋषियों
की तपस्या स्थली
के रूप में
उनकी गुफाएं आज
भी नाग पहाड़
में हैं। बताया
जाता है कि
पाराशर ऋषि भी
इसी स्थान पर
उत्पन्न हुए थे।
उन्हीं के वशंज
पाराशर ब्राह्मण कहलाते हैं।
महाभारत के वन
पर्व के अनुसार
श्रीकृष्ण ने पुष्कर
में दीर्घकाल तक
तपस्या की।
2. पुष्कर एवं
रामायण
वाल्मिकी रामायण में भी
पुष्कर का उल्लेख
है। अयोध्या के
राजा त्रिशंकु को
सदेह स्वर्ग में
भेजने के लिए
अपना सारा तप
दांव लगा देने
के लिए विश्वामित्र
ने यहाँ तप
किया था। यह
उल्लेख भी मिलता
है कि अप्सरा
मेनका भी पुष्कर
के पवित्र जल
में स्नान करने
आयी थी। उसको
देख कर ही
विश्वामित्र काम के
वशीभूत हो गए
थे। वे दस
साल तक मेनका
के संसर्ग में
रहे, जिससे शकुन्तला
नामक पुत्र का
जन्म हुआ। भगवान
राम ने अपने
पिताश्री दशरथ का
श्राद्ध मध्य पुष्कर
के निकट गया
कुंड में ही
किया था।
3. पुष्कर तीर्थ और
सरस्वती नदी
सरस्वती नदी - वेदों में
वर्णित सरस्वती नदी पुष्कर
तीर्थ और इसके
आसपास बहती है।
पुष्कर के समीपर्ती
गनाहेड़ा, बांसेली, चावंडिया, नांद
व भगवानपुरा की
रेतीली भूमि में
ही सरस्वती का
विस्तार था। पद्म
पुराण के अनुसार
देवताओं ने बड़वानल
को पश्चिमी समुद्र
में ले जाने
के लिए जगतपिता
ब्रह्मा की निष्पाप
कुमारी कन्या सरस्वती से
अनुरोध किया तो
वह सबसे पहले
ब्रह्माजी के पास
यहीं पुष्कर में
आशीर्वाद लेने पहुंची।
वह ब्रह्माजी के
सृष्टि रचना यज्ञ
स्थली की अग्रि
को अपने साथ
लेकर आगे बढ़ीं।
महाभारत के शल्य
पर्व (गदा युद्ध
पर्व) में एक
श्लोक है-पितामहेन
मजता आहूता पुष्करेज
वा सुप्रभा नाम
राजेन्द्र नाम्नातम सरस्वती। अर्थात
पितामह ब्रह्माजी ने सरस्वती
को पुष्कर में
आहूत किया। बताते
हैं कि नांद,
पिचैलिया व भगवानपुरा
जिस नदी से
सरसब्ज रहे, वह
नंदा सरस्वती ही
मौलिक रूप से
सरस्वती नदी है।
इसके बारे में
पद्म पुराण में
रोचक कथा है।
इसके अनुसार राजा
प्रभंजन कुमार ने बच्चे
को दूध पिलाती
एक हिरणी को
तार दिया तो
हिरणी के शाप
से एक सौ
साल तक नरभक्षी
बाघ बने रहे।
उसने शाप मुक्ति
का उपाय पूछा
तो हिरणी ने
बताया कि नंदा
नाम की गाय
से वार्तालाप से
मुक्ति मिलेगी। एक सौ
साल पूरे होने
पर बाघ ने
एक गाय को
पकड़ लिया। गाय
ने जैसे ही
बताया कि वह
नंदा है तो
बाघ वापस राजा
प्रभंजन के रूप
में अवतरित हो
गया। गाय की
सच्चाई से प्रसन्न
हो धर्मराज ने
वचन दिया यहां
वन में बहने
वाली सरस्वती नदी
नंदा के नाम
से पुकारी जाए।
4. पुष्कर - पुष्कर झील
पुष्कर झील - पुष्कर झील
राजस्थान के अजमेर
नगर से ग्यारह
किलोमीटर उत्तर में स्थित
है। इसका निर्माण
भगवान ब्रह्मा ने
करवाया था, तथा
इसमें बावन स्नान
घाट हैं। इन
घाटों में वराह,
ब्रह्म व गऊ
घाट महत्त्वपूर्ण हैं। वराह
घाट पर भगवान
विष्णु ने वराह
अवतार (जंगली सूअर) लिया
था। पौराणिक
सरस्वती नदी कुरुक्षेत्र
के समीप लुप्त
हो जाने के
बाद यहाँ पुनः
प्रवाहित होती है।
ऐसी मान्यता है
कि श्रीराम ने
यहाँ पर स्नान
किया था। लघु
पुष्कर के गव
कुंड स्थान पर
लोग अपने दिवंगत
पुरखों के लिए
अनुष्ठान करते हैं।
भगवान ब्रह्मा का
समर्पित पुष्कर में पाँच
मन्दिर हैं ।
ब्रह्मा मन्दिर, सावित्री मन्दिर,
बद्रीनारायण मन्दिर, वराह मन्दिर
व शिवआत्मेश्वरी मन्दिर।
5. पुष्कर तीर्थ और
ब्रह्मा मन्दिर
ब्रहमा मंदिर - पुष्कर को
तीर्थों का मुख
माना जाता है।
जिस प्रकार प्रयाग
को तीर्थराज कहा
जाता है, उसी
प्रकार से इस
तीर्थ को पुष्करराज
कहा जाता है।
पुष्कर की गणना
पंचतीर्थों व पंच
सरोवरों में की
जाती है। पुष्कर
सरोवर तीन हैं
- ज्येष्ठ (प्रधान) पुष्कर, मध्य
(बूढ़ा) पुष्कर, कनिष्क
पुष्कर। ज्येष्ठ पुष्कर के
देवता ब्रह्माजी, मध्य
पुष्कर के देवता
भगवान विष्णु और
कनिष्क पुष्कर के देवता
रुद्र हैं। पुष्कर
का मुख्य मन्दिर
ब्रह्माजी का मन्दिर
है। जो कि
पुष्कर सरोवर से थोड़ी
ही दूरी पर
स्थित है। मन्दिर
में चतुर्मुख ब्रह्मा
जी की दाहिनी
ओर सावित्री एवं
बायीं ओर गायत्री
का मन्दिर है।
पास में ही
एक और सनकादि
की मूर्तियाँ हैं,
तो एक छोटे
से मन्दिर में
नारद जी की
मूर्ति। एक मन्दिर
में हाथी पर
बैठे कुबेर तथा
नारद की मूर्तियाँ
हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण
में उल्लिखित है
कि अपने मानस
पुत्र नारद द्वारा
सृष्टिकर्म करने से
इन्कार किए जाने
पर ब्रह्मा ने
उन्हें रोषपूर्वक शाप दे
दिया कि तुमने
मेरी आज्ञा की
अवहेलना की है,
अतः मेरे शाप
से तुम्हारा ज्ञान
नष्ट हो जाएगा
और तुम गन्धर्व
योनि को प्राप्त
करके कामिनियों के
वशीभूत हो जाओगे।
तब नारद ने
भी दुःखी पिता
ब्रह्मा को शाप
दिया तात! आपने
बिना किसी कारण
के सोचे - विचारे
मुझे शाप दिया
है। अतः मैं
भी आपको शाप
देता हूँ कि
तीन कल्पों तक
लोक में आपकी
पूजा नहीं होगी
और आपके मंत्र,
श्लोक कवच आदि
का लोप हो
जाएगा। तभी से
ब्रह्मा जी की
पूजा नहीं होती
है। मात्र पुष्कर
क्षेत्र में ही
वर्ष में एक
बार उनकी पूजा
-अर्चना होती है।
पूरे भारत में
केवल एक यही
ब्रह्मा का मन्दिर
है। इस मन्दिर
का निर्माण ग्वालियर
के महाजन गोकुल
प्राक् ने अजमेर
में करवाया था।
ब्रह्मा मन्दिर की लाट
लाल रंग की
है तथा इसमें
ब्रह्मा के वाहन
हंस की आकृतियाँ
हैं। चतुर्मुखी ब्रह्मा
देवी गायत्री तथा
सावित्री यहाँ मूर्तिरूप
में विद्यमान हैं।
हिन्दुओं के लिए
पुष्कर एक पवित्र
तीर्थ व महान
पवित्र स्थल है।
6. पुष्कर मेला - ऊँट
मेला, पुष्कर
पुष्कर मेले का
एक रोचक अंग
ऊँटों का क्रय-विक्रय है। निस्संदेह
अन्य पशुओं का
भी व्यापार किया
जाता है, परन्तु
ऊँटों का व्यापार
ही यहाँ का
मुख्य आकर्षण होता
है। मीलों दूर
से ऊँट व्यापारी
अपने पशुओं के
साथ में पुष्कर
आते हैं। पच्चीस
हजार से भी
अधिक ऊँटों का
व्यापार यहाँ पर
होता है। यह
सम्भवतः ऊँटों का संसार
भर में सबसे
बड़ा मेला होता
है। इस दौरान
लोग ऊँटों की
सवारी कर खरीददारों
का अपनी ओर
लुभाते हैं। पुष्कर
में सरस्वती नदी
के स्नान का
सर्वाधिक महत्त्व है। यहाँ
सरस्वती नाम की
एक प्राचीन पवित्र
नदी है। यहाँ
पर वह पाँच
नामों से बहती
है। पुष्कर स्नान
कार्तिक पूर्णिमा को सर्वाधिक
पुण्यप्रद माना जाता
है। यहाँ प्रतिवर्ष
दो विशाल मेलों
का आयोजन किया
जाता हैं। कार्तिक
शुक्ल एकादशी से
पूर्णिमा तक यहाँ
पर एक विशाल
मेला लगता है।
दूसरा मेला वैशाख
शुक्ला एकादशी से पूर्णिमा
तक रहता है।
मेलों के रंग
राजस्थान में देखते
ही बनते हैं।
ये मेले मरुस्थल
के गाँवों के
कठोर जीवन में
एक नवीन उत्साह
भर देते हैं।
लोग रंग-बिरंगे
परिधानों में सज-धजकर जगह-जगह पर
नृत्य गान आदि
समारोहों में भाग
लेते हैं। यहाँ
पर काफी मात्रा
में भीड़ देखने
को मिलती है।
लोग इस मेले
को श्रद्धा, आस्था
और विश्वास का
प्रतीक मानते हैं। पुष्कर
मेला थार मरुस्थल
का एक लोकप्रिय
व रंगों से
भरा मेला है।
यह कार्तिक शुक्ल
एकादशी को प्रारम्भ
हो कार्तिक पूर्णिमा
तक पाँच दिन
तक आयोजित किया
जाता है। मेले
का समय पूर्ण
चन्द्रमा पक्ष, अक्टूबरदृनवम्बर का
होता है। पुष्कर
झील भारतवर्ष में
पवित्रतम स्थानों में से
एक है। प्राचीनकाल
से लोग यहाँ
पर प्रतिवर्ष कार्तिक
मास में एकत्रित
हो भगवान ब्रह्मा
की पूजा उपासना
करते हैं। पौराणिक
दृष्टि से पुष्कर
के निर्माण की
गाथाएं रहस्य और रोमांच
से परिपूर्ण हैं।
इनका उल्लेख पद्मपुराण
में मिलता है।
पद्मपुराण के सृष्टि
खंड में लिखा
है कि किसी
समय वज्रनाभ नामक
एक राक्षस इस
स्थान में रह
कर ब्रह्माजी के
पुत्रों का वध
किया करता था।
ब्रह्माजी ने क्रोधित
हो कर कमल
का प्रहार कर
इस राक्षस को
मार डाला।
उस
समय कमल की
जो तीन पंखुडियाँ
जमीन पर गिरीं,
उन स्थानों पर
जल धारा प्रवाहित
होने लगी। कालांतर
में ये ही
तीनों स्थल ज्येष्ठ
पुष्कर, मध्यम पुष्कर व
कनिष्ठ पुष्कर के नाम
से विख्यात हुए।
ज्येष्ठ पुष्कर के देवता
ब्रह्मा, मध्य के
विष्णु व कनिष्ठ
के देवता शिव
हैं। मुख्य पुष्कर
ज्येष्ठ पुष्कर है और
कनिष्ठ पुष्कर बूढ़ा पुष्कर
के नाम से
विख्यात हैं, जिसका
हाल ही जीर्णोद्धार
कराया गया है।
इसे बुद्ध पुष्कर
भी कहा जाता
है। पुष्कर के
नामकरण के बारे
में कहा जाता
है कि ब्रह्माजी
के हाथों (कर)
से पुष्प गिरने
के कारण यह
स्थान पुष्कर कहलाया।
राक्षस का वध
करने के बाद
ब्रह्माजी ने इस
स्थान को पवित्र
करने के उद्देश्य
से कार्तिक नक्षत्र
के उदय के
समय कार्तिक एकादशी
से यहाँ यज्ञ
किया, जिसमें सभी
देवी-देवताओं को
आमंत्रित किया। उसकी पूर्णाहुति
पूर्णिमा के दिन
हुई। उसी की
स्मृति में यहाँ
कार्तिक माह एकादशी
से पूर्णिमा तक
मेला लगने लगा।
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