संत
रविदास - महान कवि एवं
समाज-सुधारक
रविदास
भारत में 15वीं
शताब्दी के एक
महान संत, दर्शनशास्त्री,
कवि, समाज-सुधारक
और ईश्वर के
अनुयायी थे। वो
निर्गुण संप्रदाय अर्थात् संत
परंपरा में एक
चमकते नेतृत्वकर्ता और
प्रसिद्ध व्यक्ति थे तथा
उत्तर भारतीय भक्ति
आंदोलन को नेतृत्व
देते थे। ईश्वर
के प्रति अपने
असीम प्यार और
अपने चाहने वाले,
अनुयायी, सामुदायिक और सामाजिक
लोगों में सुधार
के लिये आध्यात्मिक
और सामाजिक संदेश
दिये।
मूर्तिपूजा,
तीर्थयात्रा जैसे दिखावों
में रविदास का
बिल्कुल भी विश्वास
न था। वह
व्यक्ति की आंतरिक
भावनाओं और आपसी
भाईचारे को ही
सच्चा धर्म मानते
थे। रविदास ने
अपनी काव्य-रचनाओं
में सरल, व्यावहारिक
ब्रजभाषा का प्रयोग
किया है, जिसमें
अवधी, राजस्थानी, खड़ी
बोली और उर्दू-फारसी के शब्दों
का भी मिश्रण
है। रैदास को
उपमा और रूपक
अलंकार विशेष प्रिय रहे
हैं। सीधे-सादे
पदों में संत
कवि ने हृदय
के भाव बड़ी
सफाई से प्रकट
किए हैं। इनका
आत्मनिवेदन, दैन्य भाव और
सहज भक्ति पाठक
के हृदय को
उद्वेलित करते हैं।
रविदास
के चालीस पद सिखों
के पवित्र धर्मग्रंथ गुरुग्रंथ
साहब में भी सम्मिलित
हैं। मीरा के
गुरु रविदास ही
थे।
संत
रविदास जयंती - रविदास भारत
में 15वीं शताब्दी
के एक महान
संत, दर्शनशास्त्री, कवि,
समाज-सुधारक और
ईश्वर के अनुयायी
थे। भारत में
खुशी और बड़े
उत्साह के साथ
माघ महीने की
पूर्णिमा पर हर
साल संत रविदास
की जयंती मनायी
जाता है। जबकि
वाराणसी में लोग
इसे किसी उत्सव
या त्योहार की
तरह मनाते है।
रविदास जयंती पर्व को
प्रतीक बनाने के लिये
वाराणसी के सीर
गोवर्धनपुर के श्री
गुरु रविदास जन्म
स्थान मंदिर के
बेहद प्रसिद्ध स्थान
पर हर साल
वाराणसी में लोगों
के द्वारा इसे
बेहद भव्य तरीके
से मनाया जाता है
सन्त रविदास
का जन्म सन्
1398 में माघ पूर्णिमा
के दिन काशी
के निकट माण्डूर
नामक गांव में
हुआ था। उनके
पिता का नाम
संतोखदास (रग्घु) और माता
का नाम कर्मा
(घुरविनिया) था। सन्त
कबीर उनके गुरु
भाई थे, जिनके
गुरु का नाम
रामानंद था। सन्त
रविदास बचपन से
ही दयालु एवं
परोपकारी प्रवृति के थे।
उनका पैतृक व्यवसाय
चमड़े के जूते
बनाना था। लेकिन
उन्होंने कभी भी
अपने पैतृक व्यवसाय
अथवा जाति को
तुच्छ अथवा दूसरों
से छोटा नहीं
समझा। सन्त रविदास
अपने काम के
प्रति हमेशा समर्पित
रहते थे। वे
बाहरी आडम्बरों में
विश्वास नहीं करते
थे।
इस मंदिर में लगा है 200 किलो सोना, यहां 24 घंटे चलता है लंगर
कथा - एक दिन संत रविदास (रैदास) अपनी कुटिया में बैठे प्रभु का स्मरण करते हुए कार्य कर रहे थे, तभी एक ब्राह्मण रैदासजी की कुटिया पर आया और उन्हें सादर वंदन करके बोला कि मैं गंगाजी स्नान करने जा रहा था, सो रास्ते में आपके दर्शन करने चला आया। रविदास जी ने कहा कि आप गंगा स्नान करने जा रहे हैं, यह एक मुद्रा है, इसे मेरी तरफ से गंगा मैया को दे देना। ब्राह्मण जब गंगाजी पहुंचा और स्नान करके जैसे रुपया गंगा में डालने को उद्यत हुआ तो गंगा नदी में से गंगा मैया ने जल में से अपना हाथ निकालकर वह रुपया ब्राह्मण से ले लिया तथा उसके बदले ब्राह्मण को एक सोने का कंगन दे दिया। ब्राह्मण जब गंगा मैया का दिया कंगन लेकर लौट रहा था तो वह नगर के राजा से मिलने चला गया। ब्राह्मण को विचार आया कि यदि यह कंगन राजा को दे दिया जाए तो राजा बहुत प्रसन्न होगा। उसने वह कंगन राजा को भेंट कर दिया।
राजा
ने बहुत-सी
मुद्राएं देकर उसकी
झोली भर दी।
ब्राह्मण अपने घर
चला गया। इधर
राजा ने वह
कंगन अपनी महारानी
के हाथ में
बहुत प्रेम से
पहनाया तो महारानी
बहुत खुश हुई
और राजा से
बोली कि कंगन
तो बहुत सुंदर
है, परंतु यह
क्या एक ही
कंगन, क्या आप
बिल्कुल ऐसा ही
एक और कंगन
नहीं मंगा सकते
हैं। राजा ने
कहा- प्रिये ऐसा
ही एक और
कंगन मैं तुम्हें
शीघ्र मंगा दूंगा।
राजा से उसी
ब्राह्मण को खबर
भिजवाई कि जैसा
कंगन मुझे भेंट
किया था वैसा
ही एक और
कंगन मुझे तीन
दिन में लाकर
दो वरना राजा
के दंड का
पात्र बनना पड़ेगा।
खबर सुनते ही
ब्राह्मण के होश
उड़ गए। वह
पछताने लगा कि
मैं व्यर्थ ही
राजा के पास
गया, दूसरा कंगन
कहां से लाऊं?
संत रविदास एक
दिन अपनी कुटिया
में बैठे प्रभु
का स्मरण करते
हुए कार्य कर
रह थे ।
इसी ऊहापोह में
डूबते-उतरते वह
रैदासजी की कुटिया
पर पहुंचा और
उन्हें पूरा वृत्तांत
बताया कि गंगाजी
ने आपकी दी
हुई मुद्रा स्वीकार
करके मुझे एक
सोने का कंगन
दिया था, वह
मैंने राजा को
भेंट कर दिया।
अब राजा ने
मुझसे वैसा ही
कंगन मांगा है,
यदि मैंने तीन
दिन में दूसरा
कंगन नहीं दिया
तो राजा मुझे
कठोर दंड देगा।
रैदासजी बोले कि
तुमने मुझे बताए
बगैर राजा को
कंगन भेंट कर
दिया। इसका पछतावा
मत करो। यदि कंगन
तुम भी रख
लेते तो मैं
नाराज नहीं होता,
न ही मैं
अब तुमसे नाराज
हूं। रही दूसरे
कंगन की बात
तो मैं गंगा
मैया से प्रार्थना
करता हूं कि
इस ब्राह्मण का
मान-सम्मान तुम्हारे
हाथ है।
इसकी
लाज रख देना।
ऐसा कहने के
उपरांत रैदासजी ने अपनी
वह कठौती उठाई
जिसमें वे चर्म
गलाते थे। उसमें
जल भरा हुआ
था। उन्होंने गंगा
मैया का आह्वान
कर अपनी कठौती
से जल छिड़का
तब गंगा मैया
प्रकट हुई और
रैदास जी के
आग्रह पर उन्होंने
एक और कड़ा
ब्राह्मण को दे
दिया। ब्राह्मण खुश
होकर राजा को
वह कंगन भेंट
करने चला गया
और रैदासजी ने
अपने बड़प्पन का
जरा भी अहसास
ब्राह्मण को नहीं
होने दिया। ऐसे
थे हमारे महान
संत रविदास जी।
रैदास
जन्म के कारणों,
होत न कोई
नीच। नर को नीच
करि डारि है,
ओहे कर्म की
कीच।।
हरि
सा हीरा छांड
कै, करै आन
की आस। ते नर
जमपुर जाहिंगे, सत
आषै रविदास।।
मुसलमान
सो दोस्ती हिन्दुअन
सो कर प्रीत। रैदास
जोति सभी राम
की सभी हैं
अपने मीत।।
Comments
Post a Comment